भगवान् कृष्णद्वैपायन व्यास महर्षि परासर के द्वारा माँ सत्यवती से उत्पन्न हुए | इन्हें शास्त्रनाभिज्ञ कुछ लोग शूद्र कहते हैं | उनका कहना है कि नाविक की कन्या ( शूद्रकन्या ) सत्यवती थीं | अतः उनसे महर्षि परासर द्वारा उत्पन्न व्यास जी शूद्र हुए | इन लोगों से एक प्रश्न है कि जब शूद्र और ब्राह्मण दोनों से व्यास जी समुत्पन्न हैं तो आप मातृपक्ष को ध्यान में रखकर उन्हें शूद्र ही क्यों मान रहे हैं ? पितृपक्ष को देखकर उन्हें ब्राह्मण क्यों नही कहते ? केवल अपना उल्लू सीधा करना है न | निष्पक्ष तो माता पिता पर जब ध्यान देगा तो उसे संदेह होगा कि व्यास जी को ब्राह्मण माना जाय या शूद्र ? किन्तु दुराग्रही अपनी मानसिकता थोपेगा कि वे शूद्र ही थे | वस्तुतः उन्हें शूद्र इसलिए मानना कि वे शूद्रकन्या से उत्पन्न हुए थे –यह मात्र भ्रान्ति ही है | क्योंकि माँ सत्यवती शूद्रकन्या थीं ही नही | केवल कैवर्त द्वारा उनका पालन किया गया था | उनकी उत्पत्ति ब्रह्मा जी के शाप से मीनभाव को प्राप्त अद्रिका नामक एक श्रेष्ठ अप्सरा जो यमुना में मछलीरूप में निवास कर रही थी, के उदर से हुई थी, जिसमे कारण चेदि देश के परम प्रतापी महाराज उपरिचर वसु का वीर्य था
--- तत्राद्रिकेति विख्याता ब्रह्मशापाद्वराप्सराः | मीनभावमनुप्राप्ता बभूव यमुनेचरी || श्येनपादपरिभ्रष्टं तद्वीर्यमथ वासवम् |जग्राह तरसोपेत्य साSद्रिका मत्स्यरूपिणी ||
-- महाभारत,आदिपर्व,अंशावतरणपर्व, ६३/५८-५९-६०,
उपरिचर वसु के वीर्य के प्रभाव से १०वे मास इसके उदर से एक बालक और बालिका को मत्स्यजीवियों ने निकाला और महाराज उपरिचर से इस रहस्य को बतलाया | तो उन्होंने बालक को ले लिया जिसका नाम मत्स्य रखा और वह बाद में राजा बना – “ तयोः पुमांसं जग्राह राजोपरिचरस्तदा | स मत्स्यो नाम राजाSSसीद्धार्मिकः सत्यसंगरः ||--वहीं ६३, व्यास जी की माँ शूद्रकन्या नही --- और जो कन्या थी उसके शरीर से मछली की गंध निकलती थी,उसे महाराज ने मछुवारे को दे दिया जिसका नाम सत्यवती पड़ा—
“ सा कन्या दुहिता तस्या मत्स्या मत्स्यगन्धिनी | राज्ञा दत्ता च दाशाय कन्येयं ते भवत्विति ||
--६७, दाश—कैवर्ते दाशधीवरौ—अमरकोष१/१०/१५,
ध्यातव्य है कि यह कन्या भी एक प्रतापी क्षत्रियराजा के वीर्य द्वारा मत्स्यरूपिणी एक श्रेष्ठ अप्सरा से जन्मी है | अतः बीज के प्रभाव को देखते हुए इसे क्षत्राणी ही कहा जा सकता है, शूद्र नही |
“ यस्माद्बीजप्रभावेण तिर्यग्जा ऋषयोSभवन् | पूजिताश्च प्रशस्ताश्च तस्माद्बीजं प्रशस्यते |
--मनुस्मृति—१०/७२,
“ बीजयोन्योर्मध्ये बीजोत्कृष्टा जातिः प्रधानम् ”
—मन्वर्थमुक्तावली,
बीज और योनि के मध्य में उत्कृष्ट बीज वाली जाति ही प्रधान है इसीलिये तिर्यग योनि से समुत्पन्न लोग भी ऋषि हुए हैं और पूजित होने के साथ श्रेष्ठ भी माने गए |
क्या किसी बालक या बालिका का किसी अन्य जातीय व्यक्ति से पालन हो तो उसकी जाति बदल जायेगी ? माता सत्यवती की उत्पत्ति में किसी शूद्र या शूद्रा के रज अथवा वीर्य का कोई सम्बन्ध ही नही, ऐसी स्थिति में केवल पालन करने मात्र से उन्हें शूद्र कहकर व्यास जी को शूद्र मानना केवल प्रज्ञापराध नही तो और क्या है ?
विजातीय संसर्ग से सांकर्यदोष ---सांकर्य दोष २ प्रकार का होता है |
१-अनुलोम संकर ,
२- प्रतिलोम संकर |
अनुलोमसंकर—उच्च वर्ण के पुरुष का निम्न वर्ण की कन्या के साथ विवाह विहित है –मनुस्मृति-३/१३, अतः इनसे उत्पन्न संतानें अनुलोम संकर की परिधि में हैं | जैसे ब्राह्मण से क्षत्रिय कन्या द्वारा उत्पन्न संतान निषाद,क्षत्रिय से वैश्यकन्या द्वारा उत्पन्न माहिष्य तथा शूद्रकन्या से उत्पन्न उग्र कही जाती है | इस प्रकार ब्राह्मण द्वारा ३, क्षत्रिय से २ तथा वैश्य से १ कुल मिलाकर अनुलोम संकर संताने ६ प्रकार की हुईं | प्रतिलोम संकर –चूंकि निम्न वर्ण के पुरुष के साथ उच्च वर्ण की कन्या का विवाह शास्त्रानुमोदित नही है इसलिए शूद्र से ब्राह्मण ,क्षत्रिय और वैश्य की कन्या में उत्पन्न संतानें क्रमशः चांडाल, क्षत्ता और अयोगव कही जाती हैं
—शूद्रादायोगवः क्षत्ता चाण्डालश्चाधमो नृणाम् | वैश्यराजन्यविप्रासु जायन्ते वर्णसङ्कराः ||
--मनुस्मृति -१०/१२,
ऐसे ही व्यभिचारजन्य संतानें,सगोत्रादि विवाह से समुत्पन्न त्तथा विहित उपनयन संस्कार से रहित व्रात्य संज्ञक संतानें भी वर्ण संकर कही जाती हैं | –अपने अपने वर्ण की विवाहिता कन्या से उत्पन्न संतानें ही अपने अपने वर्ण की होती हैं, अन्यनहीं | सांकर्य के अपवाद महर्षिगण
--- उन ब्रह्मर्षियों की संतानों पर भी सांकर्य का प्रभाव नही पड़ता जो अपनी उत्कृष्ट तपश्चर्या से अलौकिक शक्ति सम्पन्न हो चुके हैं | अत एव महर्षि विभांडक का अमोघ वीर्य जिसे मृगी पी गयी थी—से समुत्पन्न ऋष्यश्रृंग ब्राह्मण ही हुए, उनके लिये विप्रेन्द्र शब्द प्रयुक्त हुआ है –
“नान्यं जानाति विप्रेन्द्रो नित्यं पित्रनुवर्तनात् |
--वाल्मीकि रामायण,बा.का.९/५,
ब्रह्मर्षि भृगु की पौलोमी नामक पत्नी जो पुलोम दानव की कन्या थीं, उनसे उत्पन्न च्यवन ब्राह्मण ही हुए
–पप्रच्छ च्यवनं विप्रं लवणस्य यथाबलम् |
--वा.रा.उ.का.६७/१,
यहाँ माँ दानवकन्या है फिर भी मात्र पिता में ब्राह्मणत्व होने के कारण ही च्यवन में ब्राह्मणत्व आया | अब क्षत्रियकन्याओं में ब्रह्मर्षियों द्वारा उत्पन्न संतानें वर्ण संकर न होकर ब्राह्मण ही हुईं –इस तथ्य को सप्रमाण प्रस्तुत किया जा रहा है | राजर्षि कुशनाभनन्दन गाधि (वा.रा.बा.का.३२/११,) की सत्यवती नामक कन्या से ब्रह्मर्षि ऋचीक का विवाह हुआ---
गाधिश्च सत्यवतीं कन्यामजनयत् | तां च भार्गव ऋचीको वव्रे |
---तामृचीकः कन्यामुपयेमे | अनन्तरं च सा जमदग्निमजीजनत् |
--विष्णु महापुराण ४/७/१२-१३-१४-१६-३२,
यहाँ माता क्षत्रिया और पिता ब्राह्मण हैं | फिर भी इन दोनों से समुत्पन्न जमदग्नि ब्राह्मण ही हुए, वर्ण संकर नही | यदि जमदग्नि जी ब्राह्मण नही होते तो उनसे उत्पन्न परशुराम जी ब्राह्मण कैसे होते ? इक्ष्वाकुवंशी महाराज रेणु की क्षत्रियकन्या रेणुका जो जमदग्नि की पत्नी थीं उनसे प्रादुर्भूत परशुराम जी ब्राह्मण ही हुए, वर्णसंकर नही ---
“ जमदग्निरिक्ष्वाकुवंशोद्भवस्य रेणोस्तनयां रेणुकामुपयेमे | तस्यां चाशेषक्षत्रहन्तारं नारायणांशं जमदग्निरजीजनत् ”
—विष्णुमहापुराण ४/७/३५-३६,
इन परशुराम जी के लिये ब्राह्मण शब्द स्पष्टतया प्रयुक्त हुआ है---
“ क्षत्ररोषात् प्रशान्तस्त्वं ब्राह्मणश्च महातपाः ”
—वा.रा. बा.का,७५/६,
यहाँ सत्यवादी महाराज दशरथ ने परशुराम जी को महातपस्वी ब्राह्मण बतलाया है | अतः सिद्ध होता है कि असीम शक्ति सम्पन्न ब्रह्मर्षियों से ब्राह्मण पुत्र की समुत्पत्ति हेतु ब्राह्मणकन्या अनिवार्य नही है | वे दानव या क्षत्रिय की कन्या से भी ब्राह्मण संतान उत्पन्न कर सकते हैं | इसीलिये भगवान मनु भी वीर्य को स्त्रीरूपी क्षेत्र से अधिक महत्त्व देते हुए कहते हैं --
“ यस्माद्बीजप्रभावेण तिर्यग्जा ऋषयोSभवन् | पूजिताश्च प्रशस्ताश्च तस्माद्बीजं प्रशस्यते ||
--मनुस्मृति—१०/७२,
“ बीजयोन्योर्मध्ये बीजोत्कृष्टा जातिः प्रधानम् ”
मन्वर्थमुक्तावली, बीज और योनि के मध्य में उत्कृष्ट बीज वाली जाति ही प्रधान है इसीलिये तिर्यग योनि से समुत्पन्न लोग भी ऋषि हुए हैं और पूजित होने के साथ श्रेष्ठ भी माने गए | श्रेष्ठता का तात्पर्य उनके ब्राह्मणत्व-- ख्यापन में है | जिसे सप्रमाण अभी प्रस्तुत किया जा चुका हैं | अतः इन साक्ष्यों के आधार पर ब्रह्मर्षि परासर द्वारा माता सत्यवती से समुत्पन्न भगवान् कृष्णद्वैपायन व्यास ब्राह्मण ही हैं, शूद्र नही | भागवत महापुराण का साक्ष्य— महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में ऋत्विक ब्राह्मणों के वरण का जब समय आया तो उन्होंने वेदवादी ब्राह्मणों का वरण किया जिनमें भगवान् व्यास का उल्लेख द्वैपायन शब्द से सुस्पष्ट किया गया है---
“ इत्युक्त्वा यज्ञिये काले वव्रे युक्तान् स ऋत्विजः |कृष्णानुमोदितः पार्थो ब्राह्मणान् वेदवादिनः || द्वैपायनो भरद्वाजः सुमन्तुर्गौतमोSसितः |
--भा.पु.१०/७४/६-७,
यहाँ भगवान् कृष्णद्वैपायन का नाम सबसे पहले उल्लिखित है | ( यहाँ द्वैपायन शब्द कृष्णद्वैपायन का वाचक है | इसके पूर्वपद कृष्ण का “ विनापि प्रत्ययं पूर्वोत्तरपदयोर्वा लोपो वाच्यः ”—इस वार्तिक से लोप हो गया है | )
इतना ही नही ,जब भगवान् श्रीकृष्ण विदेहनगरी में पधारते हैं,उस समय उनके साथ कृष्णद्वैपायनव्यास तथा उनके पुत्र स्वयं शुकदेव जी भी हैं |इसका उल्लेख स्वयं शुकदेव ही कर रहे हैं ---
“ आरुह्य साकं मुनिभिर्विदेहान् प्रययौ प्रभुः || नारदो वामदेवोSत्रिः कृष्णो रामोSसितोSरुणिः | अहं बृहस्पतिः कण्वो मैत्रेयश्च्यवनादयः ||
--भागवत महापुराण,१०/८६/१७-१८,
यहाँ कृष्णः शब्द कृष्णद्वैपायन का वाचक है | उसके उत्तरपद द्वैपायन का
“ विनापि प्रत्ययं पूर्वोत्तरपदयोर्वा लोपो वाच्यः ”
—इस वार्तिक से लोप हो गया है | यहाँ अहं शब्द से शुकदेव जी ने अपना उल्लेख किया है | इन सबको यहाँ द्विज कहा गया है –
न्यमन्त्रयेतां दाशार्हमातिथ्येन सह द्विजैः | मैथिलः श्रुतदेवश्च युगपत् संहताञ्जली ||
--भा.पु.१०/८६/२५,
क्या इससे कृष्ण द्वैपायन व्यास ओर उनके पुत्र का ब्राह्मणत्व स्पष्ट नही हो रहा है ? भगवान् वेदव्यास शूद्र होते तो उनके पुत्र शुकदेव और स्वयं उनको यहाँ द्विज क्यों कहा जाता ? इतने पर भी व्यास जी को शूद्र कहने वालों तुम्हे संतोष न हो रहा हो तो अब इससे संतोष अवश्य हो जायेगा | सुनो—जब भगवान् श्रीकृष्ण मिथिला में विप्र श्रुतदेव के यहाँ ऋषियों सहित पधारे हैं | तब श्रुतदेव से कहते हैं कि ब्राह्मण इस लोक में जन्म से ही सभी प्राणियों से श्रेष्ठ होता है | इस पर भी यदि उसमे तपश्चर्या, विद्या, संतोष, मेरी उपासना हो तब तो कहना ही क्या ?—
“ ब्राह्मणो जन्मना श्रेयान्सर्वेषां प्राणिनामिह | तपसा विद्यया तुष्ट्या किमु मत्कलया युतः ||
--भागवत महापुराण,१०/८६/५३,
जो लोग “ जन्मना जायते शूद्रः –” ऐसा प्रलाप करते हैं वे इस प्रमाण से समझने की चेष्टा करें कि ब्राहमणत्व जाति जन्म से ही आती है | इसके बाद ३ श्लोकों मे विप्रों की महिमा का विशद वर्णन करने के बाद भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं अपने श्रीमुख से कृष्णद्वैपायन व्यास ओर शुकदेव आदि को उद्देश्य करके श्रुतदेव से कहते हैं कि हे विप्र ! इसलिये तुम इन ब्रह्मर्षियों को मेरा ही स्वरूप समझकर अर्चना करो ---
“ तस्माद् ब्रह्मऋषीनेतान् ब्रह्मन् श्रद्धयार्चय |
--भागवत महापुराण,१०/८६/५७,
यहां कृष्णद्वैपायन व्यास उनके पुत्र शुकदेव आदि को ब्रह्मर्षि कहा गया है | अतः इस भग्वद्वचन से विरुद्ध व्यास जी को शूद्र कहने वाले कितने प्रामाणिक हैं ?
-–इसका निश्चय सुधी जन स्वयं करें | इसी प्रकार अन्य ऋषियों के विषय में भी समझना चाहिए, जिन्हें वेदमंत्र--द्रष्टा बतलाते हुए आज शूद्र कहा जा रहा है