आमची भूमिका !

सनातन हिंदु धर्म आणि संस्कृती यांच्या विध्वंसनाचे कार्य करणारे खिस्ती आणि इस्लाम यांसारखे धर्म, अर्थ आणि काम यांवर केंद्रित पाश्चात्त्य जीवनरहाटी असणार्‍या विध्वंसकाचे हात बळकट करणारे आपल्या देशातील जे निधर्मी, पुरोगामी आहेत, त्यांचा आधी बंदोबस्त करावा लागेल. बाहेरच्या शत्रूशी केव्हाही लढता येईल; परंतु घरातील या चेकाळणार्‍या शत्रूचे काय ? आधी घरातील विंचू मारा, मग उंबरठ्यावरील सापाला ठेचा. ‘हिंदूंच्या मनावर हे बिंबवणे’, हेच या लेखांचे एकमेव उद्दिष्ट आहे.

Monday, April 29, 2013

श्रीमद्भागवत महापुराण मे राधा जी





विद्वान और पंडित जन कहते हैं की जिस समाधि की अवस्था में भागवत पुराण लिखा गया और जब राधा जी का प्रवेश हुआ तो वेद व्यास जी इतने डूब गए कि राधा चरित लिख ही नहीं सके| और सच्च तो यह है कि जो भागवत के प्रथम श्लोक



"श्री कृष्णाय वासुदेवाय" में "श्री" है...



इसका अर्थ है कि सबसे पहले राधा जी को नमन किया है | 



"श्री कृष्णाय वयं नम:" 



इसमें अकेले कृष्ण को नहीं 
"श्री कृष्ण" को नमन किया है |
सनातन धर्म में शक्ति-विशिष्ट ब्रह्म कि पूजा है | निराकार ब्रह्म कि पूजा नहीं हो सकती | वही ब्रह्म जब शक्ति-विशिष्ट होता है...तभी उसकी पूजा हो सकती है | 
"श्री" का अर्थ है "शक्ति" अर्थात "राधा जी" | 
शुकदेव जी पूर्व जन्म में राधा जी के निकुंज के शुक (तोता) थे| निकुंज में गोपिओं के साथ प्रभु क्रीडा करते थे और
शुकदेव जी सारा दिन राधा-राधा कहते थे| यह देख एक दिन राधा जी ने हाथ उठाकर तोते को अपनी ओर बुलाया | तोता आकर राधा जी के चरणों कि वंदना करता है |वह उसे उठाकर अपने
हाथ में ले लेती हैं और तोता फिर श्री राधे राधे बोलने लगा | तब राधा जी ने कहा, "अब तू राधा राधा नहीं, कृष्ण कृष्ण बोल" | इस प्रकार राधा जी तोते
को समझा ही रही थी कि तभी कृष्ण आ जाते हैं | राधा जी ने उनसे कहा कि यह
तोता कितना मधुर बोलता है और उसे प्रभु के हाथ में दे दिया | इस प्रकार राधा जी ने ब्रह्म के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध कराया | इसलिए उस जन्म में शुकदेव जी कि सद्गुरु श्री राधा जी हैं और
इसीलिए सद्गुरु होने के कारण भागवत में
राधा जी का नाम नहीं लिया अर्थात अपने गुरु का नाम नहीं लिया | जिस प्रकार यदि पत्नी अपने पति का नाम ले, तो उसकी आयु घटती है, उसी प्रकार सद्गुरु को मन में स्मरण कर 'सद्गुरु कि जय" कहना चाहिए, मर्यादा भंग
नहीं करनी चाहिए |
ऐसा शास्त्रों में वर्णन आता है | और दूसरा कारण राधा शब्द भागवत में ना आने का यह है कि यदि शुकदेव जी राधा नाम ले भी लेते तो वह उसी पल राधा जी के भाव में इतना डूब जाते कि पता नहीं कितने दिनों तक उस भाव से बहार
ही नहीं आ पाते | ऐसे में राजा परीक्षित के पास तो केवल सात ही दिन थे, फिर कथा कैसे पूरी होती| जब प्रभु ने राधा जी से पूछा कि इस साहित्य में तुम्हारी क्या भूमिका होगी? तब राधा जी ने खा कि मुझे कोई भूमिका नहीं चाहिए, में तो आपके पीछे हूँ | 



इसिलए कहा गया है कि 
कृष्ण यदि शब्द हैं तो राधा अर्थ है , कृष्ण गीत हैं तो राधा संगीत ह, 
कृष्ण वंशी हैं तो राधा स्वर हैं , 
कृष्ण समुन्द्र हैं तो राधा तरंग हैं, 
कृष्ण पुष्प हैं तो राधा उस पुष्प कि सुगंध हैं | 
इसीलिए राधा जी इसमें अदृश्य
रही हैं| उनका नाम "गुप्त रीति" से दो तीन स्थानों पर लिया गया है | 



भागवत में महारास के
प्रसंग का यह श्लोक विचारणीय है : 
"तत्रारभत गोविन्दो रास क्रीडा मनु व्रते |
स्त्रीरतनैरविन्तः प्रीतैरन्योन्यबद्धबाहुभि: 



" अर्थात भगवान् श्रीकृष्ण कि प्रेयसी और सेविका गोपिआं बहो में बाहें डाल खड़ी थी | 



श्रीमद्भागवत मे प्रसंग आता है कि वृन्दावन मे रासलीला करते हुए भगवान अंतर्ध्यान हो जाते हैं ...तो गोपियाँ व्याकुल होकर उन्हें खोजने लगती हैं ..मार्ग मे श्रीकृष्ण के साथ साथ एक ब्रजबाला के भी पदचिन्ह दिखाई दिये 
"अनया आराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वर: | 
यन्नो विहाय गोविन्द: प्रीतोयामनयद्रह: ||" 
अर्थात गोपिया आपस में कहती हैं :'अवश्य ही सर्व शक्तिमान कि वह आराधिका होगी, इसीलिए इसपर प्रसन्न होकर हमारे प्राण प्यारे श्यामसुंदर ने हमें छोड़ दिया है और इसे एकांत में ले गए हैं . स्पष्ट है कि यह गोपी और कोई नहीं, राधा जी ही थी | श्लोक में "आराधितो" शब्द में राधा नाम छिपा है